मानव की जन्मकुंडली में कालसर्प योग (राहु-केतु अन्तर्गत सब ग्रहों का आना) के कारण उसके जीवन में कई बाधाएं उत्पन्न होती हैं, जैसे कि शादी, संतान में विलंब, विद्याभ्यास में विक्षेप, दाम्पत्य जीवन में असंतोष, मानसिक अशांति, स्वास्थ्य हानि, धनाभाव एवं प्रगति में रुकावट आदि।
इन सबके निवारण हेतु ‘कालसर्प योग’ की श्रद्धा-भक्ति के साथ विधिवत् शांति करनी अति आवश्यक है। इस शांति द्वारा सम्पूर्ण फल-प्राप्ति के साथ जातक कई सुखों का उपभोग कर सकता है।
ऐसे तो इस शांतिकर्म में किसी भी एक ही धातु से निर्मित ग्यारह नागमूर्तियों की आवश्यकता होती है, पर इन ग्यारह मूर्तियों में नी मूर्तियां तांबे से बनी हुई हों और अन्य दो मूर्तियां सुवर्ण या चांदी और सीसे या लोहे की बनी हुई हों तो काम चल सकता है।
यदि ग्यारह मूर्तियां एक ही धातु से बनी हुई उपलब्ध न हों तो सिर्फ तीन मूर्तियां ही बनवाकर (तांबा, चांदी, सुवर्ण, सीसा या लोहा) बाकी की आठ मूर्तियों के स्थान पर प्रतीकात्मक रूप सुपारी रख कर भी शांति विधानकर्म किया जा सकता है।
यह कालसर्प योग-शांतिकर्म यहां पर उल्लिखित विधि-विधान के अतिरिक्त भी अन्य कई प्रकारों से किया जा सकता है। जैसे :
1. मोर या गरुड़ का चित्र बनाकर उस चित्र पर नाग विषहरण मंत्र लिखें और उस
मंत्र के दस हजार जप कर दशांश होम के साथ ब्राह्मणों को खीर का भोजन कराएं।
2. पत्थर की नाग की प्रतिमा बनवा कर उसकी मंदिर हेतु प्रतिष्ठा कर नागमंदिर बनावें।
3. कार्तिक या चैत्रमास में सर्पबलि कराने से भी कालसर्प योग-दोष निवारण होता है।
4. अपने नाप का कहीं पर मरा हुआ सर्प मिल जाय तो उसका शुद्ध घी के द्वारा अग्नि संस्कार कर तीन दिन तक सूतक पालें और बाद में सर्पबलि कराएं अथवा जीवित सर्प की पूजा कर उसे जंगल में छुड़वा दें।
5. एक साल तक गेहूं या उड़द के आटे की सर्पमूर्ति बनाकर पूजन करने के
बाद नदी में छोड़ दें और एक साल बाद नागबलि कराएं।
6. नागपंचमी के दिन सर्पाकार सब्जियां खुद न खाकर न काट कर ब उनका दान दें और अपने वजन के हिसाब से गायों को पास खिलाकर जीवितन की पूजा करें और अपने घर में दीवार पर नौ नाग का सचित्र नागमंडल बनाले नित्य धूप-दीप के साथ अनंत चतुर्दशी से लेकर पितृ श्राद्ध पर्यन्त खीर-नैवेद्य के साथ पूजा के बाद अपनी अनुकूलता के अनुसार नागबलि कराएं।
इस शांतिकर्म में गौमुख-प्रसव के बाद प्रधान संकल्पानुसार पंचांग कर्म, विशेष देव-मंडल क्रमानुसार देवस्थान, प्रतिष्ठा पूजनादि कर्म का प्रारंभ करें।
1. मध्य में मृत्युंजय (महारुद्र) स्थापन हेतु लिंगतोभद्र।
2. शेषादि नी नाग स्थापन हेतु चावलों का अष्टदलात्मक नागमंडल।
3. ईशान कोने में मनसादेवी का स्थापन।
-4. शेष नाग के दक्षिण (वायु कोना) में काले वस्त्र पर कृष्णपात्र (काली मटकी) समन्वित काले तिलों का राहु स्थापन।
5. शेषनाग के वामभाग (नैर्ऋत्य कोना) में केतु-स्थापन। अब यहां पर उल्लिखित क्रमानुसार प्रथम महारुद्र की षोडशोपचारी विधिवत् पूजा कर इस शांतिकर्म संलग्न शेषादि नौ नाग, दक्षिणवाम राहु-केतु एवं मनसादेवी का स्थापन, प्रतिष्ठा पूजनादि कर्म करें। तक्षकादि सहित शेषराज की निम्न क्रमानुसार स्थापना करें।
नागमंडल (अष्टदल) के मध्य में तीन नागमूर्तियां शेष के रूप में।
1. पूर्व-तक्षक,
2. अग्नि-वासुकि,
3. दक्षिण-कर्कोटक,
4. नैर्ऋत्यअनन्त,
5. पश्चिम-शंखपाल,
6. वायु-महापव,
7. उत्तर-नील एवं ईशान में
8. कम्बल।
उक्त नागदेवताओं की स्थापना के बाद पंचभूः संस्कारपूर्वक वहिस्थापन, ग्रहस्थापन तदन्तर ग्रहहोम एवं स्थापन क्रमानुसारेण स्थापित देवताओं का प्रधान होम कर शेषकार्य विधिवत् सम्पन्न कर पूर्णाहुति के बाद स्थापित कलशों के जल से यजमान दम्पती पर सर्पों के साथ (पुत्र या पुत्री की शांति हो तो उनके साथ भी) अभिषेक करें। नैवेद्य में नौ खण्डात्मक नैवेद्य अर्पण करें। आरती में राहु-फल कोपरावाटी में नौ बत्तियों से आरती उतारें। सब नौ-नौ के हिसाब से सौभाग्यवती स्त्रियां, कन्याएं, बटुक एवं ब्राह्मणादि को भोजन कराकर वस्त्र-पात्रादि दान के साथ दक्षिणा दें।
कर्मान्त एक नाग आचार्य को, दूसरा शिवालय में एवं तीसरा नाग बहते हुए गहरे पानी में छोड़ दें।
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